अपने इस दौर में है रंज का सामान बहुत आज इंसाँ है मसाइल से परेशान बहुत हिज्र में यास-ओ-अलम ने कहाँ तन्हा छोड़ा बिन बुलाए मिरे घर आ गए मेहमान बहुत हम तो आग़ाज़ से ही इश्क़ में बर्बाद रहे नफ़ा के बदले किया हम ने तो नुक़सान बहुत इश्क़ की जंग में आसान नहीं फ़त्ह-ए-मुबीं काम आए इसी मैदान में इंसान बहुत दोस्त वो बनते हैं जो दिल में समा जाते हैं सफ़र-ए-ज़ीस्त में टकराते हैं इंसान बहुत भीड़ दुनिया में है अब किज़्ब-ओ-रिया वालों की आज-कल मिलते नहीं साहिब-ए-ईमान बहुत उम्र भर होती रहीं हसरतें पूरी 'ज़ाकिर' फिर भी हसरत है कि निकले नहीं अरमान बहुत