ऐश-आगाह ग़म-शनास रहा जी कभी ख़ुश कभी उदास रहा वक़्त ने अनगिनत लिबास दिए फिर भी इंसान बे-लिबास रहा उस से पूछो ख़ुशी के एहसासात मुद्दतों जो ग़मों के पास रहा मैं वो सहरा-ए-बे-सराब हूँ जो अपने ही लब की बन के प्यास रहा क़ल्ब-ए-नौ में ब-फ़ैज़-ए-वहम-ओ-गुमाँ हर यक़ीं सूरत-ए-क़यास रहा हादसों के हुजूम में पिस कर ग़म का हर लम्हा बद-हवास रहा क़त्ल लम्हों का हो रहा था मगर वक़्त बे-ख़ौफ़-ओ-बे-हिरास रहा मेरा अफ़्साना-ए-हयात 'अह्मर' बन के हर ग़म का इक़्तिबास रहा