ऐसी नहीं है बात कि क़द अपने घट गए चादर को अपनी देख के हम ख़ुद सिमट गए जब हाथ में क़लम था तो अल्फ़ाज़ ही न थे अब लफ़्ज़ मिल गए तो मिरे हाथ कट गए संदल का मैं दरख़्त नहीं था तो किस लिए जितने थे ग़म के नाग मुझी से लिपट गए बैठे थे जब तो सारे परिंदे थे साथ साथ उड़ते ही शाख़ से कई सम्तों में बट गए अब हम को शफ़क़तों की घनी छाँव क्या मिले जितने थे साया-दार शजर सारे कट गए 'साग़र' किसी को देख के हँसना पड़ा मुझे दुनिया समझ रही है मिरे दिन पलट गए