अजब आहंग था उस शोर में भी ख़र्च हुई मेरी आवाज़-ए-सुकूत-ए-अजबी ख़र्च हुई एक ही आन में दीदार हुआ बात हुई ख़्वाहिश-ए-वस्ल सर-ए-तूर सभी ख़र्च हुई ज़िंदगी तेरे तआ'क़ुब में गुज़ारी हुई शब बड़ी मुश्किल से मिली और यूँही ख़र्च हुई सुब्ह तक ज़ुल्फ़-ए-सियह-रंग का जादू था अजब रात बोतल में थी जितनी भी बची ख़र्च हुई सुब्ह उठते ही मैं कुछ धूप भरुँगा इन में ख़्वाब देखें हैं तो आँखों की नमी ख़र्च हुई कितनी तह-दार ख़ला है ये ख़ला के अंदर आसमाँ देख के नूर-ए-नज़री ख़र्च हुई क्या ही अच्छी थी कलाई में बंधी रहती थी वक़्त को देखते रहने से घड़ी ख़र्च हुई बड़ी वीरानी सर-ए-कूचा-ए-ज़ुल्मत है नसीब आप आए हैं तो थोड़ी ही सही ख़र्च हुई