अजीब रात थी वो रात में नहीं आया कि मेरे ख़्वाब-ए-तिलिस्मात में नहीं आया वो इस लिए ही तो आया था फूल खिल जाएँ फिर इस के बा'द वो बाग़ात में नहीं आया मैं चाहता था उसे छू के देख लूँ लेकिन वो आसमान मिरे हात में नहीं आया वगर्ना तुम से तअ'ल्लुक़ मैं ख़त्म कर देता पे इंतिशार बयानात में नहीं आया गुनह मुआ'फ़ मैं उस को ख़ुदा बना बैठा ख़ुदा ख़याल-ए-मुलाक़ात में नहीं आया खुले किवाड़ मिरे घर के बैन करते रहे कोई भी हाथ मिरे हात में नहीं आया फ़ुरात तू ने बहत्तर की तिश्नगी देखी तू फिर भी ख़ेमा-ए-सादात में नहीं आया