अजब फ़सुर्दा-दिली से हयात काटी है क़रीब बैठ के मय्यत के रात काटी है किसी की याद की ज़ंजीर टूटती ही न थी ये क़ैद-ए-उम्र ब-सद-मुश्किलात काटी है हबाब-दार हुआ ख़ुद-नुमा जहाँ क़तरा सज़ा-ए-दावा-ए-इरफ़ान-ए-ज़ात काटी है उरूज ख़ाक-नशीनों का भी अरे तौबा तनाब-ए-ख़ेमा-ए-गर्दूं-सिफ़ात काटी है वो ख़ार-ज़ार-ए-हयात और ये आबला-पाई लहू जला के शब-ए-सानेहात काटी है हुआ है यूँ भी कि झुक झुक के जड़ मोहब्बत की रफ़ीक़ों ने ज़-रह-ए-इल्तिफ़ात काटी है कहीं न 'बर्क़' की महरूमियों का ज़िक्र आए अदू ने इश्क़-ओ-मोहब्बत की बात काटी है