अज़ाब हो गई ज़ंजीर-ए-दस्त-ओ-पा मुझ को जो हो सके तो कहीं दार पे चढ़ा मुझ को तरस गया हूँ मैं सूरज की रौशनी के लिए वो दी है साया-ए-दीवार ने सज़ा मुझ को जो देखे तो इसी से है ज़िंदगी मेरे मगर मिटा भी रही है यही हवा मुझ को उसी नज़र ने मुझे तोड़ कर बिखेर दिया उसी नज़र ने बनाया था आईना मुझ को सराब-ए-उम्र-ए-तमन्ना की तिश्नगी हूँ मैं अगर है चश्मा-ए-फ़ैयाज़ तो बुझा मुझ को कभी तो अपने बदन के चराग़ रौशन कर कभी तो अपने लहू से भी आज़मा मुझ को