अजब ख़ूँ-चकाँ कर्बला का समाँ था थे सब तिश्ना-लब और दरिया रवाँ था मुसीबत के मारों का इक कारवाँ था हर इक ग़म-ज़दा बूढ़ा बच्चा जवाँ था था इक आलम-ए-हश्र हर सम्त गोया था बद-हाल हर शख़्स जो भी जहाँ था सिसकते थे बच्चे बिलकती थीं माएँ जो इंसान भी प्यास से ना-तवाँ था सितम आज भी उस का विर्द-ए-ज़बाँ है यज़ीद-ए-लईं जो वहाँ हुक्मराँ था था ख़ेमों में कोहराम जो जल रहे थे हर एक सम्त जैसे धुआँ ही धुआँ था हुआ कर्बला में जो क़ुर्बान 'बर्क़ी' हुसैन इब्न-ए-हैदर का वो ख़ानदाँ था