ना-शनासी का हमेशा ग़म रहा आइना भी अपना ना-महरम रहा आग है उस पर है ये बे-शो'लगी अपने जलने का अजब आलम रहा सारे ऊँचे घर हवा की ज़द में थे मेरा मलबा था जो मुस्तहकम रहा मैं भी सैल-ए-आरज़ू में बह गया वो भी ग़र्क़-ए-गर्मी-ए-शबनम रहा हम गिरे भी तो अना के ग़ार में टूटते पर भी वही दम-ख़म रहा अब है 'हाली' बे-नियाज़ी का ख़ला अब कहाँ एहसास-ए-बेश-ओ-कम रहा