अजब नुक़ूश हैं चेहरा तो ऐसा था ही नहीं ये मेरा अक्स नहीं है कि आईना ही नहीं लिखूँ वो बात कि शिद्दत से हो तुझे महसूस मिरे क़लम में शब-ए-हिज्र की सियाही नहीं फिरा रहा है ज़माने से रास्तों का तिलिस्म ग़रीब-ए-शहर अभी मो'तबर हुआ ही नहीं खुरच ले ज़ेहन से सारे तअस्सुरात कि अब तिरी बहार का मौसम तो आएगा ही नहीं हज़ार क़ुर्ब की ख़ुशबू ने बात की 'अशहर' वो क्या सफ़र था मुसाफ़िर तो कुछ खुला ही नहीं