अजब था ज़ोम कि बज़्म-ए-अज़ा सजाएँगे मिरे हरीफ़ लहू के दिए जलाएँगे मैं तजरबों की अज़िय्यत किसे किसे समझाऊँ कि तेरे बाद भी मुझ पर अज़ाब आएँगे बस एक सज्दा-ए-ताज़ीम के तक़ाबुल में कहाँ कहाँ वो जबीन-ए-तलब झुकाएँगे अतश अतश की सदाएँ उठी समुंदर से तो दश्त-ए-प्यास के चश्मे कहाँ लगाएँगे छुपा के रख तो लिया है शरार-ए-बू-लहबी धुआँ उठा तो नज़र तक मिला न पाएँगे दराज़ करते रहो दस्त-ए-हक़-शनास अपना बहुत हुआ तो वो नेज़े पे सर उठाएँगे नवाह-ए-लफ़्ज़-ओ-मआनी में गूँज है किस की कोई बताए ये 'अमजद' कि हम बताएँगे