अजब तिलिस्म है नैरंग-ए-जावेदानी का कि टूटता ही नहीं नश्शा ख़ुद-गुमानी का सफ़र तमाम हुआ जब सराब का तो खुला अजीब ज़ाइक़ा होता है ठंडे पानी का जहाँ पे ख़त्म वहीं से शुरूअ होती है तभी तो ज़िक्र-ए-मुसलसल है इस कहानी का किधर डुबो के कहाँ पर उभारता है तू ये कैसा रंग है दरिया तिरी रवानी का वो मुझ में अब भी वही हौसले तलाशता है कहाँ से ढूँड के लाएँ बदल जवानी का