अज़-बस-कि जी है तुझ बिन बेज़ार ज़िंदगी से बेहतर है मुझ को मरना ऐ यार ज़िंदगी से मर जाऊँ मैं तो रोना मेरा तमाम होवे शाकी हैं मेरी चश्म-ए-ख़ूँ-बार ज़िंदगी से उस शाहिद-ए-निहाँ का कुश्ता हूँ मैं कि जिस ने खींची है दरमियाँ में दीवार ज़िंदगी से मरते तो छूट जाते रंज-ओ-मेहन से याँ के मानिंद-ए-ख़िज़्र हम हैं नाचार ज़िंदगी से याँ की अज़िय्यतों से अज़-बस-कि आगही थी करते थे हम अदम में इंकार ज़िंदगी से जीते अगर न हम तो क्यूँ ज़िल्लतें उठाते खाई है दिल पे हम ने तलवार ज़िंदगी से सच है उठाए कब तक हर इक की बे-अदाई आती है 'मुसहफ़ी' को अब आर ज़िंदगी से