अज़ाब-ए-जान को भी इम्बिसात समझा मैं ख़ुदा ने ग़म भी दिए तो नशात समझा में चला सँभल के कहीं जा गिरूँ न दोज़ख़ में रह-ए-हयात तुझे पुल-सिरात समझा मैं उठा जो ज़ीस्त का मेआ'र गिर गया अख़्लाक़ ग़लत भी क्या है अगर इन्हितात समझा मैं थी तेरी पहलू-तही कब ब-वज्ह-ए-रुस्वाई वो बे-रुख़ी थी जिसे एहतियात समझा मैं किताब-ए-हक़ ने दिखाया जो आइना 'आरिफ़' मैं क्या हूँ तब कहीं अपनी बिसात समझा मैं