अज़ाब-ए-वहशत-ए-जाँ का सिला न माँगे कोई नए सफ़र के लिए रास्ता न माँगे कोई बुलंद हाथों में ज़ंजीर डाल देते हैं अजीब रस्म चली है दुआ न माँगे कोई तमाम शहर मुकर्रम बस एक मुजरिम मैं सो मेरे बा'द मिरा ख़ूँ-बहा न माँगे कोई कोई तो शहर-ए-तज़ब्ज़ुब के साकिनों से कहे न हो यक़ीन तो फिर मो'जिज़ा न माँगे कोई अज़ाब-ए-गर्द-ए-ख़िज़ाँ भी न हो बहार भी आए इस एहतियात से अज्र-ए-वफ़ा न माँगे कोई