एक ऐसी भी तजल्ली आज मय-ख़ाने में है लुत्फ़ पीने में नहीं है बल्कि खो जाने में है मअ'नी-ए-आदम कुजा और सूरत-ए-आदम कुजा ये निहाँ-ख़ाने में था अब तक निहाँ-ख़ाने में है ख़िर्मन-ए-बुलबुल तो फूँका इश्क़-ए-आतिश-रंग ने रंग को शोला बना कर कौन परवाने में है जल्वा-ए-हुस्न-ए-परस्तिश गर्मी-ए-हुस्न-ए-नियाज़ वर्ना कुछ काबे में रक्खा है न बुत-ख़ाने में है रिंद ख़ाली हाथ बैठे हैं उड़ा कर जुज़्व ओ कुल अब न कुछ शीशे में है बाक़ी न पैमाने में है मैं ये कहता हूँ फ़ना को भी अता कर ज़िंदगी तू कमाल-ए-ज़िंदगी कहता है मर जाने में है जिस पे बुत-ख़ाना तसद्दुक़ जिस पे काबा भी निसार एक सूरत ऐसी भी सुनते हैं बुत-ख़ाने में है क्या बहार-ए-नक़्श-ए-पा है ऐ नियाज़-ए-आशिक़ी लुत्फ़ सर रखने में क्या सर रख के मर जाने में है बे-ख़ुदी में देखता हूँ बे-नियाज़ी की अदा क्या फ़ना-ए-ज़िंदगी ख़ुद हुस्न बन जाने में है