अज़ल से बे-सबाती का गिला था मगर इंसान ख़ुद कम-हौसला था जिसे समझे समुंदर की रवानी सबील-ए-ज़िंदगी का बुलबुला था अजब सी थी मसाफ़त तीरगी की चला था गिर पड़ा था फिर चला था हर इक लम्हा रिफ़ाक़त का हमारी धनक के सात रंगों से सजा था तवाज़ुन था ज़रूरी ज़िंदगी में तलव्वुन का मगर अपना मज़ा था खड़ा था मैं पशेमाँ फिर वहीं पर जहाँ से लग़्ज़िशों का सिलसिला था कभी सोचा भी 'आदिल' क्यूँ मिला सब हुआ हासिल वही जो दे चुका था