अजीब जुम्बिश-ए-लब है ख़िताब भी न करे सवाल कर के मुझे ला-जवाब भी न करे वो मेरे क़ुर्ब में दूरी की चाशनी रक्खे मिरे लिए मिरा जीना अज़ाब भी न करे कभी कभी मुझे सैराब कर के ख़ुश कर दे हमेशा गुमरह-ए-सेहर-ए-सराब भी न करे अजीब बरज़ख़-ए-उल्फ़त में मुझ को रक्खा है कि वो ख़फ़ा भी रहे और इताब भी न करे वो इंतिज़ार दिखाए इस एहतियात के साथ कि मेरी आँखों को महरूम-ए-ख़्वाब भी न करे वो रात भर कुछ इस अंदाज़ से करे बातें मुझे जगाए भी नींदें ख़राब भी न करे हर एक शेर में 'आज़र' नुक़ूश हैं उस के मगर वो ख़ुद को कभी बे-नक़ाब भी न करे