अज़्म-ए-बुलंद जो दिल-ए-बेबाक में रहा अक्स-ए-जलील उस का मिरी ख़ाक में रहा मेरे लबों पे ढूँडते गुज़री तुम्हारी उम्र इज़हार-ए-ग़म तो दीदा-ए-नमनाक में रहा छोटा सा एक ज़र्रा ही वज्ह-ए-हयात है ज़ौक़-ए-नुमू कहाँ ख़स-ओ-ख़ाशाक में रहा फाड़ा है उस के ग़म ने गरेबाँ को इस तरह बस एक तार दामन-ए-सद-चाक में रहा 'आज़र' है इक तसलसुल-ए-इनकार-ओ-आगही रोज़-ए-अज़ल से जो मिरे इदराक में रहा