अजीब ख़्वाहिश है शहर वालों से छुप छुपा कर किताब लिक्खूँ तुम्हारे नाम अपनी ज़िंदगी की किताब का इंतिसाब लिक्खूँ वो लम्हा कितना अजीब था जब हमारी आँखें गले मिली थीं मैं किस तरह अब मोहब्बतों की शिकस्तगी के अज़ाब लिक्खूँ तुम्ही ने मेरे उजाड़ रस्तों पे ख़्वाहिशों के दिए जलाए तुम्ही ने चाहा था ख़ुश्क होंटों से चाहतों के गुलाब लिक्खूँ कभी वो दिन थे कि नींद आँखों की सरहदों से परे परे थी मगर मैं अब जब भी सोना चाहूँ तुम्हारी यादों के ख़्वाब लिक्खूँ मैं तन्हा लड़की दयार-ए-शब में जलाऊँ सच के दिए कहाँ तक सियाहकारों की सल्तनत में मैं किस तरह आफ़्ताब लिक्खूँ क़यादतों के जुनूँ में जिन के क़दम लहू से रंगे हुए हैं ये मेरे बस में नहीं है लोगो कि उन को इज़्ज़त-मआब लिक्खूँ यही बहुत है कि इन लबों को सदा से महरूम कर के रख दूँ मगर ये कैसी मुसालहत है समुंदरों को सराब लिक्खूँ