अजीब रुत है दरख़्तों को बे-ज़बाँ देखूँ दयार-ए-शाम में आहों का मैं धुआँ देखूँ चहार सम्त से आई थी बर्फ़ की आँधी कहीं न फूल न रंगों की तितलियाँ देखूँ यक़ीन उन को दिलाऊँ चमकते सूरज का हिसार-ए-शब में जो सहमे हुए मकाँ देखूँ ज़मीं को तू ने डराया सदा मसाइब से कभी तुझे भी हिरासाँ ऐ आसमाँ देखूँ लबों पे जिस के मुसलसल पुकार पानी की उसी की आँख से दरिया भी इक रवाँ देखूँ लहू-लुहान तो कोई नज़र नहीं आता लहू में डूबी मगर सब की उँगलियाँ देखूँ हमारे अहद के लोगों को क्या हुआ 'फ़िक्री' सभों में बुझती हुई आग का समाँ देखूँ