अजीब शख़्स है कि बद-हवास तक भी नहीं वो क़त्ल करता है और फिर उदास तक भी नहीं न मुझ को अहल-ए-ख़िरद की सफ़ों में ठहराओ मिरे नसीब में अपने हवास तक भी नहीं वो ख़ुद को ख़िज़्र से देता रहा था तश्बीहें सदा दी दश्त में तो उस की बास तक भी नहीं कहाँ से बदलेगा हुर की तरह तुम्हारा नसीब तुम्हारे शहर में इक हक़-शनास तक भी नहीं हम अपनी प्यास बुझाएँ तो किस तरह 'नक़वी' हमारे हिस्से में ख़ाली गिलास तक भी नहीं