अजीब शख़्स हूँ फ़र्त-ए-वबाल होते हुए फ़िराक़ माँग रहा हूँ विसाल होते हुए निढाल अपने तमाशाइयों के झुरमुट में मैं ख़ुद को देख रहा हूँ ख़याल होते हुए बस एक वर्ज़िश-ए-तहरीर लौह-ए-हस्ती पर बस इक सवाल की धुन ख़ुद सवाल होते हुए कुछ इस कमाल से रौंदा गया हूँ मस्ती में बहुत सुकून है अब पाएमाल होते हुए शरार-ए-संग को क्या अब भी इस्तिआ'रा कहूँ इन आँसुओं की ये ज़िंदा मिसाल होते हुए गुज़र गया हूँ मिसाल-ए-ज़माना ख़ुद पर से मैं लम्हा लम्हा अलल-इत्तिसाल होते हुए मैं अपने अक्स को 'आसिम' ख़ुदा समझ बैठा ख़ता हुई थी ये महव-ए-जमाल होते हुए