अजीब तर्ज़-ए-तकल्लुम से आज़मा के मुझे वो चाहता है अभी देखना झुका के मुझे मैं देर से ही सही घर पहुँच गया आख़िर वो मुतमइन था नया रास्ता दिखा के मुझे इक उम्र मैं ने जिसे ग़ौर से नहीं देखा रखा उसी ने कड़ी धूप से बचा के मुझे मैं आइना हूँ ये उस को ख़बर न थी शायद वो शर्मसार हुआ रौशनी में ला के मुझे कभी जहाँ पे हज़ारों चराग़ जलते थे मिला सुकून वहाँ इक दिया जला के मुझे सुरूर-ए-सहन-ए-चमन से सुकूत-ए-दश्त-ए-तलब कहाँ से लाईं हवाएँ कहाँ उड़ा के मुझे