आजिज़ी को चलन किए हुए हैं ख़ाक अपना बदन किए हुए हूँ हिज्र इक मुस्तक़िल लिबास मिरा जिस को मैं ज़ेब-ए-तन किए हुए हूँ चंद आँसू मिरा असासा हैं जिन को मैं वक़्फ़-ए-फ़न किए हुए हूँ आबले उग रहे हैं पाँव में दश्त-ए-सर्व-ए-सुमन किए हुए हूँ घर में रह कर भी घर नहीं रहता ख़ुद को यूँ बे-वतन किए हुए हूँ मौत से पहले मर गया हूँ मैं ज़िंदगी को कफ़न किए हुए हूँ उस का लहजा करख़्त हो गया है और मैं हुस्न-ए-ज़न किए हुए हूँ इक तिरी याद है जिसे 'ज़ाहिद' अपने दिल की चुभन किए हुए हूँ