फ़सील-ए-जिस्म गिरा कर बिखर न जाऊँ मैं यही ख़याल है जी में कि घर न जाऊँ मैं बदन के तपते जहन्नम में ख़्वाहिशों का सफ़र इसी सफ़र के भँवर में उतर न जाऊँ मैं हुई तमाम मसाफ़त इस एक ख़्वाहिश में कि अब वो लाख बुलाए मगर न जाऊँ मैं बिखेर देता है कुछ और जब भी मिलता है उसे तो वहम यही है सँवर न जाऊँ मैं वो जिस की चाह में दुश्वार मंज़िलें तय कीं ख़मोश उस के नगर से गुज़र न जाऊँ मैं 'नवेद' उस से मिरा रब्त लफ़्ज़ ओ मअनी का ये राब्ता न रहे गर तो मर न जाऊँ मैं