अजनबी मुसाफ़िर को रास्ता दिखाएगा

अजनबी मुसाफ़िर को रास्ता दिखाएगा
कौन अपनी चौखट पर अब दिया जलाएगा

जितनी ने'मतें होंगी ख़ूब डट के खाएगा
फिर हमें क़नाअ'त का वो सबक़ पढ़ाएगा

पहले आने वाले ही लूट ले गए सब माल
बा'द में जो आएगा ख़ाली हाथ जाएगा

पेट है अगर ख़ाली फिर कहाँ की ख़ुद्दारी
भूक जब सताएगी ख़ुद को बेच खाएगा

सब की अपनी राहें हैं सब की अपनी सम्तें हैं
कौन ऐसे आलम में कारवाँ बनाएगा

जिस की उम्र गुज़री हो रेशमी शबिस्ताँ में
क्या वो हाँपते दिन की दास्ताँ सुनाएगा

आइना सिफ़त लोगो यूँ रहो न पर्दे में
वर्ना कौन दुनिया को आइना दिखाएगा

हम जो मिल के आपस में रौशनी लुटाएँगे
मैं भी जगमगाउँगा तू भी जगमगाएगा

फिर वो देगा ख़ुश-ख़बरी हम को पार उतरने की
फिर नदी में काग़ज़ की नाव वो बहाएगा

मेरी जड़ भी काटेगा वक़्त पर पस-ए-पर्दा
वो मिरी हिमायत में हाथ भी उठाएगा

महफ़िलें फ़क़ीरों की बोरिए पे सजती हैं
बारगाह-ए-शाही को कौन मुँह लगाएगा

अफ़सरों के ख़ादिम सब जुट गए सफ़ाई में
'माहिर' अपनी बस्ती में आज कौन आएगा


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