कब अश्क-ए-शब-ए-हिज्र समुंदर न हुआ था हाँ क़तरा-ए-नैसाँ अभी गौहर न हुआ था पुर-नूर हुआ ख़ाना-ए-दिल उन के क़दम से इस से कभी पहले ये मुनव्वर न हुआ था ज़ुल्फ़ें तो सँवरती ही रहीं बारहा लेकिन आईना कभी रुख़ के बराबर न हुआ था हम-ज़ाद की सूरत रही ता-उम्र असीरी उस से जो रहा होना मुक़द्दर न हुआ था मिलना था न मिलता है सुकूँ दहर में मुझ को हासिल वो हुआ अब जो मयस्सर न हुआ था मिलती ही कहाँ छाँव मुझे वादी-ए-ग़म में साया भी मिरा क़द के बराबर न हुआ था दा'वा-ए-सुख़न करना तो इक बात है 'माहिर' अब तक कोई शाइ'र तिरा हम-सर न हुआ था