अक़्ल गहवारा-ए-औहाम हुई जाती है हर तमन्ना मिरी नाकाम हुई जाती है बाइ'स-ए-शोरिश-ए-कौनैन है इंसाँ की ख़ुदी बे-ख़ुदी मोरिद-ए-इल्ज़ाम हुई जाती है अपने परवानों को ऐ शम-ए-मुसलसल न जला ज़िंदगी वाक़िफ़-ए-अंजाम हुई जाती है हर रविश पर चमन-ए-दहर में यूँ गुल न खिला हर नज़र दिल के लिए दाम हुई जाती है यूँ भी कोई रुख़-ए-रौशन से उठाता है नक़ाब हर नज़र मोरिद-ए-इल्ज़ाम हुई जाती है किन फ़ज़ाओं में ज़िया-रेज़ है ऐ मेहर-ए-जमाल ख़ाना-ए-दिल में मिरे शाम हुई जाती है हो के मजबूर मुसलसल ग़म-ओ-अंदोह से 'नाज़' ज़िंदगी ग़र्क़-ए-मय-ओ-जाम हुई जाती है