सदियों को बेहाल किया था इक लम्हे ने सवाल किया था मिट्टी में तस्वीरें भर के कूज़ा-गर ने कमाल किया था बाहर बजती शहनाई ने अंदर कितना निढाल किया था जुर्म फ़क़त इतना था मैं ने इक रस्ते को बहाल किया था ख़ुश्बू जैसी रात ने मेरा अपने जैसा हाल किया था एक सुनहरे हिज्र ने मुझ से कितना सब्ज़ विसाल किया था