अक़्ल पहुँची जो रिवायात के काशाने तक एक ही रस्म मिली काबा से बुत-ख़ाने तक वादी-ए-शब में उजालों का गुज़र हो कैसे दिल जलाए रहो पैग़ाम-ए-सहर आने तक ये भी देखा है कि साक़ी से मिला जाम मगर होंट तरसे हुए पहुँचे नहीं पैमाने तक रेगज़ारों में कहीं फूल खिला करते हैं रौशनी खो गई आ कर मिरे वीराने तक हम-नशीं कट ही गया दौर-ए-ख़िज़ाँ भी आख़िर ज़िक्र फूलों का रहा फ़स्ल-ए-बहार आने तक सारी उलझन है सुकूँ के लिए ऐ शौक़ ठहर ग़म का तूफ़ान-ए-बला-ख़ेज़ गुज़र जाने तक ज़ेहन मायूस-ए-करम शौक़-ए-नज़ारा सरशार होश में कैसे रहूँ उन का पयाम आने तक ज़ख़्म यादों के महकते हैं कि आई है बहार है ये दौलत ग़म-ए-दौराँ की ख़िज़ाँ आने तक बे-नियाज़ी है तग़ाफ़ुल है कि बे-ज़ारी है बात इतनी तो समझ लेते हैं दीवाने तक ज़िंदगी ग़म से उलझती ही रहेगी हमदम वक़्त की ज़ुल्फ़ गिरह-गीर सुलझ जाने तक मंज़िल-ए-राह तलब थी तो कहीं और मगर रुक गए ख़ुद ही क़दम पहुँचे जो मय-ख़ाने तक