आँखें खुली थीं सब की कोई देखता न था अपने सिवा किसी का कोई आश्ना न था यूँ खो गया था हुस्न हुजूम-ए-निगाह में अहल-ए-नज़र को अपनी नज़र का पता न था धुँदला गए थे नक़्श-ए-मोहब्बत कुछ इस तरह पहचानती थी आँख तो दिल मानता न था तुम पास थे तुम्हें तो हुई होगी कुछ ख़बर इतना तो अपना शीशा-ए-दिल बे-सदा न था कुछ लोग थे जिन्हें ये सआदत हुई नसीब वर्ना यहाँ किसे सर-ए-मेहर-ओ-वफ़ा न था हर सम्त हो रहा था अँधेरों का अज़दहाम शब कट चुकी थी और सवेरा हुआ न था क्या क्या फ़राग़तें थीं 'तबस्सुम' हमें कि जब दिल पर किसी की याद का साया पड़ा न था