अफ़्साना-हा-ए-दर्द सुनाते चले गए ख़ुद रोए दूसरों को रुलाते चले गए भरते रहे अलम में फ़ुसून-ए-तरब का रंग इन तल्ख़ियों में ज़हर मिलाते चले गए अपने नियाज़-ए-शौक़ पे था ज़िंदगी को नाज़ हम ज़िंदगी के नाज़ उठाते चले गए हर अपनी दास्ताँ को कहा दास्तान-ए-ग़ैर यूँ भी किसी का राज़ छुपाते चले गए मैं जितना उन की याद भुलाता चला गया वो और भी क़रीब-तर आते चले गए