अख़ीर-ए-शब सर्द राख चूल्हे की झाड़ लाएँ तुम्हारी यादों के आइने फिर से जगमगाएँ गली के नुक्कड़ पर अब नहीं है वो शोर फैला भलाई इस में है ज़ाइक़े हम भी भूल जाएँ रखे रखे हो गए पुराने तमाम रिश्ते कहाँ किसी अजनबी से रिश्ता नया बनाएँ वो हँसी आँखें जलाए देती हैं जाँ हमारी नवाह-ए-जाँ में ग़ुबार-ए-आह-ओ-बुका उड़ाएँ हमारी सब लग़्ज़िशें हैं महफ़ूज़ डाइरी में तभी तो हैं मुद्दई कि कम कम मिली सज़ाएँ