ज़बान बंद रही दिल का मुद्दआ' न कहा मगर निगाह ने उस अंजुमन में क्या न कहा मुहीत-ए-शौक़ में हम डूबते उभरते रहे ख़ुदा गवाह कभी जौर-ए-ना-ख़ुदा न कहा सनम-कदा है कि इक महफ़िल-ए-ख़ुदा-वनदाँ बहुत ख़फ़ा हुआ वो बुत जिसे ख़ुदा न कहा हज़ार ख़िज़्र-नुमा लोग रास्तों में मिले हमारे दिल ने किसी को भी रहनुमा न कहा ये काएनात तो है ख़ैर मुझ से बेगाना अगर निगाह ने तेरी भी आश्ना न कहा