ज़िंदगी होगी मिरी ऐ ग़म-ए-दौराँ इक रोज़ मैं सँवारूंगा तिरी ज़ुल्फ़-ए-परेशाँ इक रोज़ गुल खिलाएगी नई मौज-ए-बहाराँ इक रोज़ टूट ही जाएँगे क़ुफ़्ल-ए-दर-ए-ज़िन्दाँ इक रोज़ कितने उलझे हुए हालात-ए-ज़माना हैं अभी होंगे शाने पे मिरे गेसू-ए-जानाँ इक रोज़ अहल-ए-ज़िंदाँ से ये कह दो कि ज़रा सब्र करें होगा हर सम्त गुलिस्ताँ ही गुलिस्ताँ इक रोज़ आ के इक रोज़ जलाऊँगा मुरादों के दिए तेरी महफ़िल में करूँगा मैं चराग़ाँ इक रोज़ जान देता हूँ अभी इश्क़ के अंदाज़ पे मैं हुस्न होगा मिरे पहलू में ग़ज़ल-ख़्वाँ इक रोज़ कुछ अँधेरे हैं अभी राह में हाइल 'अख़्तर' अपनी मंज़िल पे नज़र आएगा इंसाँ इक रोज़