'अख़्तर' को तो रीए में भी है आर क्या करे बैठा हुआ है देर से बे-कार क्या करे यक हुजूम-ए-दर्द और और ई तमाम दिल ज़ेर पर लगाए है मिंक़ार क्या करे तारीख़ कि रही है कि मिटता नहीं है ज़ुल्म मुख़्तार-ए-कुल बता तिरा संसार क्या करे खींचे है सब को दस्त-ए-फ़ना एक सा तो फिर एक सादा-लौह करे यहाँ अय्यार क्या करे कोई नहीं है मुझ को हुनर रोज़गार का जुज़ ख़ाकसार मिदहत-ए-सरकार क्या करे जो सारी काएनात की फ़ितरत का हो अमीं हर तजरबे का जो हो ख़रीदार क्या करे जी मुज़्तरिब है हिद्दत-ए-कील-ओ-मक़ाल में ढूँडे है कोई साया-ए-दीवार क्या करे शहरों में मेरी ख़ाक अड़े मिस्ल-ए-बू-ए-गुल बे-शामा है ख़ल्क़-ए-तरह-दार क्या करे मौला मदद कि मैं हूँ अज़ादार-ए-आल-ए-ऊ आक़ा तिरे बग़ैर गुनाहगार क्या करे