अंदेशे मुझे निगल रहे हैं क्यूँ दर्द ही फूल-फल रहे हैं देखो मिरी आँख बुझ रही है देखो मिरे ख़्वाब जल रहे हैं इक आग हमारी मुंतज़िर है इक आग से हम निकल रहे हैं जिस्मों से निकल रहे हैं साए और रौशनी को निगल रहे हैं ये बात भी लिख ले ऐ मुअर्रिख़ मलबे से क़लम निकल रहे हैं