अक़्लीम-ए-दिल पे इश्क़ की फ़रमाँ-रवाइयाँ जाँ-बख़्श क़ुर्बतें कहीं क़ातिल जुदाइयाँ सूली चढ़ा कोई कोई ग़र्क़ाब हो गया क्या क्या वफ़ा से होती रहीं बेवफ़ाइयाँ लुटती है क़ैद-ए-ज़ुल्फ़ में क्या क्या बहार-ए-हुस्न तह में असीरियों की हैं क्या क्या रिहाइयाँ ज़ात-ए-बशर हज़ार गिरोहों में बट गई गुमराह और कर गईं कुछ रह-नुमाइयाँ नादारियों में सब्र की ने'मत से थे ग़नी दौलत बढ़ी तो बढ़ गईं बे-इ'तिनाइयाँ बे-पर्दगी से उड़ गया शर्म-ओ-हया का रंग चेहरे पे उड़ रही हैं हया के हवाइयाँ औसाफ़ देखना हों तो औरों के देख 'शाद' ओझल हैं तेरी आँख से तेरी बुराइयाँ