अक्स है बे-ताबियों का दिल की अरमानों में क्यूँ बे-ज़बाँ शामिल हुए जाते हैं मेहमानों में क्यूँ हो गए दीवाने रुख़्सत बस्तियों की सम्त क्या छा गईं वीरानियाँ सी फिर बयाबानों में क्यूँ दिल की उस बे-रौनक़ी का ज़िक्र जाने दीजिए हो रही हैं बस्तियाँ तब्दील वीरानों में क्यूँ है रक़ाबत जुज़्व-ए-लाज़िम मेहर-ओ-उल्फ़त का अगर इजतिमाई इश्क़ फिर होता है परवानों में क्यूँ क्या किसी कुटिया के अंदर जाग उठी है ज़िंदगी खलबली सी पड़ गई महलों में ऐवानों में क्यूँ बीख़-कुन थे जो सितम-रानों के कल तक ऐ नदीम हो रहा है अब शुमार उन का सितम-रानों में क्यूँ अम्न के ख़्वाहाँ हैं जब 'अफ़सर' जहाँ वाले तमाम कश्मकश रहती है फिर इतनी जहाँ-बानों में क्यूँ