अक्स-दर-अक्स है चेहरों की नुमूदारी से आइना देखते हैं लोग भी बे-ज़ारी से फिर भी इल्ज़ाम कई आ गए सर पर अपने मैं गुरेज़ाँ तो रहा वक़्त की अय्यारी से बुग़्ज़ है हिर्स है ग़ीबत है रिया-कारी है जिस क़दर भी हो रहो दूर ही बीमारी से बट के रह जाता है इंसान कई हिस्सों में मश्ग़ले पैदा अजब होते हैं बेकारी से बे-सबब गिरता नहीं आदमी नज़रों से कभी बद-कलामी के सबब या कभी मक्कारी से ना-मुकम्मल है ग़ज़ल ग़म की महारत के बग़ैर हुस्न आता है कहाँ शे'रों में फ़नकारी से लोग गिरवीदा मिरे यूँही नहीं आज 'लतीफ़' दिल को जीता है रवाबित से रवा-दारी से