न कोई ख़्वाब होगा और न ख़्वाबों का जहाँ होगा कोई दिल में नहीं होगा तो दिल ख़ाली मकाँ होगा बहुत ही सोच कर तू कश्ती-ए-उम्र-ए-रवाँ को डाल मुक़ाबिल में तलातुम-ख़ेज़ बहर-ए-बे-कराँ होगा नहीं है दूर वो मंज़र जिसे देखेगा ये आलम मुसलमाँ इक तरफ़ और इक तरफ़ सारा जहाँ होगा ये दौर-ए-पुर-फ़ितन है बोझ अपना ख़ुद उठाओ तुम तुम्हारा दर्द बाँटेगा न कोई मेहरबाँ होगा रईसों और लुटेरों का ज़माना है ग़रीबो तुम कभी मत सोचना तुम पर ज़माना मेहरबाँ होगा चट्टानों की तरह मैं अज़्म रखता हूँ 'लतीफ़' अब के मुझे मालूम है हर इक क़दम पर इम्तिहाँ होगा