अक्स-ए-रौशन तिरा आईना-ए-जाँ में रक्खा हम ने तस्वीर को हैरत के जहाँ में रक्खा कौन मायूस तिरी बज़्म-ए-इनायत से उठा तेरे इकराम ने किस किस को गुमाँ में रक्खा कोई मदहोश न हो साअत-ए-गुल-बोसी में उस ने यूँ फूल को काँटों की अमाँ में रक्खा वो समझता था कि हैं सच के ख़रीदार बहुत रह गया माल सभी उस की दुकाँ में रक्खा याद हम आ न सके जश्न-ए-बहाराँ में उसे हम-सफ़र जिस ने हमें अहद-ए-ख़िज़ाँ में रक्खा इक परिंदा भी नहीं पेड़ पे बाक़ी 'गुलज़ार' तीर सय्याद ने किस वक़्त कमाँ में रक्खा