असीर-ए-दर्द हो कर जी रहा हूँ By Ghazal << क़ासिद तू ख़त को लाया है ... अक्स-ए-रौशन तिरा आईना-ए-ज... >> असीर-ए-दर्द हो कर जी रहा हूँ कि अब आँसू नहीं ख़ूँ पी रहा हूँ तिरी फ़ुर्क़त सताएगी मुझे क्या में ख़ुद चाक-ए-गरेबाँ सी रहा हूँ मुझे क्यूँ आज ठुकराती है दुनिया कभी उस की ज़रूरत भी रहा हूँ मुझे फ़ुर्सत कहाँ है दश्त-ए-ग़म से हमेशा आबला-पा ही रहा हूँ Share on: