अलम-नसीब सही कुछ तो मुस्कुरा भी सको सहर के नाम पे दीवार-ए-शब गिरा भी सको गई रुतों के गुलाबों सी है महक उस में फिर उस को याद करो दिल को गुदगुदा भी सको वो इतना ज़ूद-फ़रामोश है तो क्या होगा हज़ार अह्द अगर याद उसे दिला भी सको ये क्या लगाव कि हम रास्ते का पत्थर हैं ये क्या गुरेज़ कि तुम फिर पलट के आ भी सको वो दिल-फ़रेब सही काश दिल-ज़दो तुम भी जो कब का भूल चुका है उसे भुला भी सको क़बा-ए-शब में सुलगते हैं ज़ख़्म दिन भर के लहू की आग से कुछ रौशनी बढ़ा भी सको ये माना इक वही क़ातिल है शहर में 'सरमद' कम-अज़-कम उस की नज़र से नज़र मिला भी सको