अल्फ़ाज़ के बदन को लिबास-ए-ख़याल दे हर्फ़-ए-नवा को पैकर-ए-मा'नी में ढाल दे दुश्वारी-ए-हयात को दुश्वार-तर बना जिस का जवाब बन न पड़े वो सवाल दे सरमस्तियों की मौज में लहरा के झूम जा उठ और एक जाम फ़ज़ा में उछाल दे अहल-ए-ख़िरद को सौंप न दुनिया की बाग-डोर कार-ए-ज़माना अहल-ए-जुनूँ को सँभाल दे लज़्ज़त-शनास तल्ख़ी-ए-इमरोज़ हूँ 'शरर' फिर मस्लहत न इशरत-ए-फ़र्दा पे टाल दे