और क्या रोज़-ए-जज़ा देगा मुझे ज़िंदा रहने की सज़ा देगा मुझे ज़ख़्म ही ज़ख़्म हूँ मैं दाग़ ही दाग़ कौन फूलों की क़बा देगा मुझे मैं समझता हूँ ज़माने का मिज़ाज वो बनाएगा मिटा देगा मुझे बे-कराँ सदियों का सन्नाटा हूँ मैं कौन सा लम्हा सदा देगा मुझे टूट कर लौह-ओ-क़लम की जागीर कोई देगा भी तो क्या देगा मुझे मेरे ही ख़ून में नहला के 'शरर' वो सलीबों पे सजा देगा मुझे