गो वसीअ' सहरा में इक हक़ीर ज़र्रा हूँ रह-रवी में सरसर हूँ रक़्स में बगूला हूँ हर समुद्र-मंथन से ज़हर ही निकलता है मैं ये ज़हर जीवन का हँस के पी भी सकता हूँ ये भरी-पुरी धरती इक अनंत मेला है और सारे मेले में जैसे मैं अकेला हूँ यूँ तो फूल फबता है हर हसीन जोड़े पर जिस ने चुन लिया मुझ को मैं उसी का बेला हूँ कल हर एक जल्वे में लाख जल्वे पैदा थे मैं कि था तमाशाई आज ख़ुद तमाशा हूँ ज़िंदगी के रस्तों पर ज़ख़्म-ख़ुर्दा दीवाना कह रहा था 'ज़ैदी' से मैं भी आप जैसा हूँ