कितने दीप बुझते हैं कितने दीप जलते हैं अज़्म-ए-ज़िंदगी ले कर फिर भी लोग चलते हैं कारवाँ के चलने से कारवाँ के रुकने तक मंज़िलें नहीं यारो रास्ते बदलते हैं मौज मौज तूफ़ाँ है मौज मौज साहिल है कितने डूब जाते हैं कितने बच निकलते हैं मेहर-ओ-माह-ओ-अंजुम भी अब असीर-ए-गेती हैं फ़िक्र-ए-नौ की अज़्मत से रोज़-ओ-शब बदलते हैं बहर-ओ-बर के सीने भी ज़ीस्त के सफ़ीने भी तीरगी निगलते हैं रौशनी उगलते हैं इक बहार आती है इक बहार जाती है ग़ुंचे मुस्कुराते हैं फूल हाथ मलते हैं