अल्लाह रे ये रंग ये जल्वा शबाब का जैसे खिंचा हो आँख में नक़्शा शराब का पर्दे में काएनात के मौजूद हर जगह इस पर ये एहतिमाम ये आलम हिजाब का ललचा के फ़र्त-ए-शौक़ में आँसू निकल पड़े वाइज़ ने हँस के नाम लिया जब शराब का ताब-ए-नज़ारा-ए-रुख़-ए-अनवर नहीं उसे सूरज की सम्त रुख़ है गुल-ए-आफ़्ताब का बढ़ती रही निगाह बहकते रहे क़दम गुज़रा है इस तरह भी ज़माना शबाब का हर अश्क वाक़िआ'त-ए-हसीं की है यादगार आलम न पूछिए मिरी चश्म-ए-पुर-आब का ऐ 'ऐश' जब से बादा-ए-ला-तक़्नतू मिला बाक़ी रहा न डर हमें रोज़-ए-हिसाब का